।। सनातन संस्कृति विचार ।।

होनी को कौन टाल पाया है आज तक, ये कर तो होकर ही रहती है, पर ये होनी है क्या चीज? प्रारब्ध? किस्मत? जो लिखी है किसी ने? ऊपर वाले ने? क्या वो खाली बैठा है? उसे कोई और काम नही, कि वो इतने सारे अरबों, खरबों मनुष्यों की, न केवल मनुष्यों की बल्कि समस्त जीवसत्ता की किस्मत अपने हाथों लिखे? और अगर लिखे तो उसका आधार क्या? क्या वो पक्षपाती है जो किसी की किस्मत में सुख-ही-सुख लिख दे और किसी में दुख? धन, वैभव, यशकीर्ति, मान, पद, प्रतिष्ठा, के साथ शरीरिक स्वस्थ्य भी सब कुछ किसी को दे दे और किसी का शरीर रोगों का घर बना दे? दाने-दाने को मोहताज हो किसी का जीवन? क्या वो ऐसा पक्षपाती है, भ्रष्ट नेता या अफसर की तरह रिश्वत लेकर किस्मत लिखता है, यानी हमारा भगवान भी हमारे जैसा है, स्वार्थी, लालची, रिश्वती, घुसखोर? अगर नही तो फिर वो हमारी किस्मत में कितनें काँटे क्यों भर देता है, उसे इससे क्या लाभ, क्यों वो किसी के जीवन से, किसी की भावनाओं से खिलवाड़ करता है?
या फिर कोई और ही वजह है, इंसान के सुख-दुख की? उसकी किस्मत उसके प्रारब्ध की जिसे ज्योतिषी लोग हार्थो की लकीरें पढक़र बता देते है, तो कोई कुंडली व पंचांग देखकर बता देते है। कुछ लोग कुंडली बनाते भी है, और उसकी सहयता से सामने वाले का भविष्य जान लेते है, बता देते है, ना सिर्फ बता देते है, बल्कि उसे बदलने के उपाय भी बताते है और इन सब चक्करों में फंसा इंसान बिना पतवार की नाव की तरह कभी यहाँ कभी वहाँ  ढोलते रहता है, कभी एक कभी दूसरा भविष्यवक्ता उसका आश्रय बनता है, और बने भी न क्यों वो इनता डरा हुआ जो रहता है अपनी किस्मत से, अपने भाग्य अपने प्रारब्ध से ।
जीवन समस्याओं का सरमाया है परीक्षाओं का परिणाम है, साधना के सघन वन में कत्र्तव्य की केड़ी पर लगातार पग बढ़ाते रहने का नाम जीवन है, मंजिल तभी मिल सकती है जब निरन्तर चलते रहा जाये, पर भाग्यवादी अपने भविष्य से लगातार डरा रहता है, उसके चरण रूक-रूक के पड़ते है। वो कभी दो कदम आगे, तो कभी तीन कदम पीछे चलता है। जिसकी जिन्दगी किसी अन्य के कथन पर आश्रित हो वो कर भी क्या सकता है? कहते है ना पेण्डुलम हिलता भर है पहुँचता कई नही आगे पीछे डोलते रहता है । उस व्यक्ति का जीवन भी जो दूसरो के इशारे पर चलता है, कभी यहाँ कभी वहाँ कभी, इस दिशा में कभी उस दिशा में, कभी दो कदम आगे कभी दो कदम पीछे, किसी ने कहा, पूरब में जाओं तो कोई बोला नही वापस आओं तुम्हें पश्चिम में जाना है, और बस किसी तरह जीवन कटते जाता है, वो इस जीवन में, इस दुनिया में दुन्वयी चीजों से भी वंचित रहता है, लगातार असफलताओं का बोझ ही उसकी जिन्दगी का दूसरा नाम बन जाता है । इस बोझ को ढोते ढोते व्यर्थ के चक्करों में जीवन व्यतीत हो जाता है । संसार की दृष्टी से जिसे सफलता कहते है, वो सांसारिक सफलताऐं भी उससे दूरी बनाई रहती है । वो इंसान लगातार तनाव में बना रहता है, इन सब उधेड़ बुन में जीवन लक्ष्य की और को ध्यान जाता ही नही ।

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